आर्यान्योक्तिशतकम्
कविवंशवर्णनम्
(कविप्रणीतवामनावतरणाख्यमहाकाव्यस्यादिसर्गात् समुद्धृतम्)
अभवमितशंसः कोऽपि वंशो द्विजानां
शुभचरितनिधानं मञ्जुगोरक्षपुर्याम्।
रघुपतिशरवार्ये भूप्रदेशे वसन्त-
स्तदनुगतसमाख्यां येऽभजन्पङ्क्तिपूताः।।१
सुकृतनिचयभूतं गौतमाख्यं सुगोत्रं
प्रवरबहुलशाखा शुक्लमाध्यन्दिनी सा।
अभवदमृतनेत्री चण्डमुण्डादिहन्त्री
प्रभवनिधनमूलं वंशपूज्या नु तेषाम्।।२
अथ तदजिरजातः कोऽपि पूतान्तरात्मा
गुणगणमणिमाली भोजराजाभिधानः।
उपसरयु विहाय ग्रामवासं स्वकीयं
सुवसतिभभयाख्यं तीर्थदेशान् प्रतस्थे!!३
स च नवतनुकान्तिर्निष्ठयातिप्रकृष्टः
व्यवहृतिरमणीयससौम्यसौम्योऽतिचिन्तः।
कथमपि विधियोगान्मण्डले जामदग्न्ये
ननु यवनपुराख्ये प्रोषितं सम्प्रवृत्तः।।४
तदनघवटुवंशेऽभूत्सुतो भोजराजात्
प्रचुरबलनिकायस्शीतलाख्यस्सभेयः।
पुरपरिघविशालैर्बाहुमाल्यैर्यदीयैः
सुविहितशुभकृत्यं मन्यतेऽद्यापि लोकः।।५
त्रितयसुतकनिष्ठश्शीतलस्योपकार-
प्रवणमतिविभूतिर्भेषजाचारदक्षः।
अजनि जगति काशीराम आत्मप्रपूतो
विधिहरिहरदूतस्सूततुल्यः पुराणे।।६
त्रिसुतसुकृतराशिः काशिरामात्तु जज्ञे
अभवदथ कनीयान् श्रीदुलारो यदीयैः।
प्रमदगजसमानैर्बाहुशौर्यप्रमाणैः
पितृवनवसतीनाञ्चापि भीतिर्विरूढा।।७
रजनिपतिगुणाग्रः श्रीदुलारस्य सूनुः
समजनि शुभकर्मा कोऽपि धर्मावतारः।
यदुरसि हरिमूर्तिश्चानने देववाणी
सुमनसि खलु रेमे भूरिभावा भवानी!!८
अभवदखिललोके तत्समाख्याऽऽमृताङ्गी
ननु युगदिशि रामानन्दमिश्राभिधाना।
यदधरमधु पायं पायमात्मानमूर्ध्वं
प्रभुचरणनिलीनं भक्तलोकोऽनुमेने!!९
न किमपि तदभीष्टं मानसं वाचिकं वा
प्रविततपुरुषार्थैः कर्मभिर्यन्न सिद्धम्।
न च तदुदितभव्यं लोकिकं तत्परं वा
प्रयतनपरिणामैर्नैकधा यन्न भुक्तम्!!१०
त्रितनयवरपुञ्जं सोऽत्रिकल्पोऽनुलेभे
धृतजनिमिव पूतं त्रिप्रसादं भवान्याः।
त्रिगणसुखसमूहञ्चाप्यनेनैव भेजे
परमगतिमथापि स्कन्दमातुः प्रसादात्!!११
स च परममनस्वी तेजसातिप्रगल्भो
धृतनिशितकुठारः क्षात्रधर्मानुरक्तः।
प्रथम इव बभूव क्षीरसिन्धुप्रमन्थात्
क्षुभितनिखिललोकस्तीव्रहालाहलौधः।।१२
सुचरितरमणीयोऽपत्यबन्धुप्रलीनः
कृतबुधजनसङ्गोऽभङ्गविद्याविलासी।
जगति जयति सोऽसौ तातदुर्गाप्रसादः
सुरभुवि विलसन्तं यं सदैव स्मरामि!!१३
नववयसि समग्रैर्मानवीयातिचारै-
विधिवदिषुधिकल्पां गन्धयित्वा धरित्रीम्!
अनृणमपि विधाय त्र्यात्मजैरात्मदेहं
हरिचरणशरण्योऽभूत्स षड्विंशतिस्थः!!१४
सदुपयमनकेलिं नैमिषीं शङ्कमाना
कुटिलनियतिचक्रं नैरपेक्ष्यञ्च धातुः।
मुषितविभवमूलाऽभूद्युगस्यानुकूला
तदमलघनलेखा चारुभार्याऽभिराजी!!१५
प्रियविरहकृशाङ्गी त्यक्तकूलापगेव
प्रचलसलिलभङ्गान्सा पुपोषेव पुत्रान्!
विधुरमणवियोगं पार्वणं विस्मरन्ती
सुखयति सुतकल्पाँस्तारकानेव रात्रिः!!१६
अथ जलधितरङ्गैश्चण्डखण्डप्रवातै-
स्तरणिरिव विलोलं जीवनं यापयन्ती।
कथमपि निहताशा सातिदीना ददर्श
श्रितनियतिविकासं जीवनव्योम्नि शुभ्रम्!!१७
रसरसरसखाख्ये हायने विक्रमाणां
हृतजननिविषादो मासि पौषेऽसिते च।
अवतरणमुपेतः पञ्चमेऽह्नि प्रभाते
स्वजनविजयहेतुर्मध्यमस्तत्तनूजः!!१८
चपलकृतिकदम्बे त्वम्बया बाल्यकाले
प्रबरगुरुसमूहैश्चापि कैशोर्यवृत्तौ।
कुसुमशरविलोले यौवने साधुदृष्टो
महितपदपितृव्यैश्चायमाद्याप्रसादैः!!१९
ध्वज इव सुकृतानां व्योम्नि दोधूयमानः
निखिलविभवपुञ्जं पार्थिवञ्चानुयातः।
प्रयतननिरतोऽभूद्वामनं गातुकामो
विकलविधिरिदानीं पश्य राजेन्द्रमिश्रः।।२०
तरलजलधिवीथ्यादित्यमेतुं यतन्ते
ननु कवयितुकामाः साम्प्रतं देववाण्या।
क्व नृपतिपरिवेशः सोऽद्य हर्षादिकाणां
क्व च विहगगलानुस्यूतगीतं पुराणम्!!२१
तदपि च भवितव्यं सम्भवत्येव सृष्टौ
न बृहदभिनिवेशः क्वापि रुद्धोऽन्तरायैः।
सजलधरणिगर्भे सूप्तबीजस्य यद्वत्
प्रभवति ननु रोद्धुं क्रोऽङ्कुरप्रक्रियां ताम्!!२२
मृदुलमुरलिकल्पां काव्यशक्तिं स्वकीयाम्
अहमपि ननु जाने छिद्रपर्याकुलाङ्गीम्।
प्रकटयति यदीयं मूर्च्छनां भङ्गलोलां
न खलु मुरलिशक्तिस्सा तु वाण्याः कृपैव!!२३
अभिराजराजेन्द्रविरचितम्
आर्यान्योक्तिशतकम्
विबुधवर्गः
क्लेशं याहि न शम्भो! सम्प्रति लोकाभिरुचिर्नो यत्त्वयि।
इदमेव तावदधिकं मन्दिरभङ्गो न कलावस्मिन्।।१
इस युग में लोगों की अभिरूचि जो तुममें नहीं रह गयी है (इस बात से) हे शम्भो! क्लेश का अनुभव न करो। इस कलिकाल में तुम्हारा मन्दिर नहीं टूट रहा है, इतना ही समझ लो, बहुत है।
माऽऽङ्गं तापय गङ्गे! दृष्ट्वात्मानन्तु कृशतनुं शुष्काम्
साम्प्रतमपि विद्यन्ते! भुवि भक्तास्तवार्चयितारः।।२
हे गङ्गे! अपने को कृशकाय एवं जलविहीन देखकर देह न जलाओ। आज भी पृथ्वी में तुम्हारी अर्चना करने वाले भक्तगण विद्यमान हैं।
धन्या सा सदुपस्था सुरशुनकी सरमा न मनोर्भार्या।
यन्मनुजैस्सेव्यन्तेऽनिशमिह तत्सुभगसन्ततयः।।३
प्रशंसनीय जननाङ्गों वाली वह देवशुनी सरमा ही धन्य है, मनु की पत्नी नहीं (जिससे मानवों ने जन्म लिया है) जिस सरमा की भाग्यवान् सन्ततियाँ मनुष्यों द्वारा निरन्तर इस संसार में सेवित हो रही हैं।
अलमलमशनिनिपातैस्संहर मघवन्ननवसरक्रोधम्।
पातालिकलक्ष्यन्ते दहति जगत् किन्न विजानासि।।४
वज्रपात करने से कोई लाभ नहीं! हे देवराज इन्द्र! अपने अनवसर क्रोध को बढाओ नहीं! क्या तुम नहीं जानते हो कि (दैत्यराज बलि के प्रति किया गया) तुम्हारा पाताल सम्बन्धी लक्ष्य संसार को दग्ध किया करता है?
पारेयामुनसलिलं चतुरमुकुन्दस्तु वादयति मुरलीम्।
यदनुश्रुत्य सुवदना पश्योत्ताम्यति गृहे राधा।।५
यमुना-जल के उस पार चतुर मुकुन्द मुरली बजा रहे हैं, जिसे सुनकर, देखिये चन्द्रमुखी राधा घर में उफन रही है।
मानववर्गः
तिक्तालाबुलतेयं निम्बारूढा वायसोपभुक्ता।
तदपि फलं वैधेयः पश्य क्रयार्थं नयति विपणिम्।।६
तितलौकी की यह बेल नीम पर चढी हुई तथा कौवों द्वारा (फल) खाई गई है। फिर भी देखो, यह मूर्ख वेचने के लिये (इसका) फल बाजार लिये जा रहा है।
कुरु कुरु तावदभीष्टं स्वार्थं साधय मन्त्रिपदमवाप्य!
यावन्नास्यपदस्थो रे खल! पल्लवय स्वकीयान्।।७
मन्त्रिपद प्राप्त करके तब तक खूब मनमानी कर ले, अंपने स्वार्थ सिद्ध कर ले! अरे मूर्ख! जब तक तू अपदस्थ नहीं हो जाता तब तक अपने लोगों को पल्लवित कर ले!
किं मां कशाभिधातैर्जर्जरदेहं ताडयसि रक्षिन्।
मद्दत्तापि धनश्रीर्भविता त्वद्दुरितघटनायै।।८
(वृद्धावस्था के कारण) जर्जर शंरीर वाले मुझ गरीब को कोड़ों की मार से काहे को लहुलुहानकर रहे हो जी? अरे (घूस के रूप में) मेरे द्वारा दी गई धनलक्ष्मी भी तो तुम्हारे पापकर्मों (जुआ, शराब, वेश्यागमन) में ही खर्ची जायेगी!!
बाले कुवलयमाले! तव शुभचरितं कलयति रजनिरेव।
न च दिवसो जनुषान्धो यमतादृशं त्वमपि जानासि।।९
बिटिया कुवलयमाला! तुम्हारा शुभचरित्र तो रात ही जानती है। जन्म से ही अन्धा (बेचारा) दिन क्या जाने, जिसे कि तुम भी “जन्मान्ध” नहीं समक्षती (और इसलिये दिन में सती अनसूया बनी रहती हो)
कुर्वन्निह पीत्कारं प्रतिवनमटति तृषाकुलो रथाङ्गः।
अन्धबधिरलोकोऽयं स्वार्थमपेक्ष्ये किन्तु विद्वेष्टि।।१०
“पी कहां” की रट लगाता हुआ, प्यास से व्याकुल पपीहा इस धरती पर वन-वन भागता फिरता है फिर भी (आँख से) अन्धा और (कान से) बहरा यह संसार स्वार्थ की अपेक्षावश (शोर मचाने के कारण) उससे द्वेष करता है।
वैद्योऽहं जनसेवी मूल्यं विनैवौषधिं नु वितरामि।
तदपि क्रेतृसमूहो मामवधूयप्रायत्यन्यम्।।११
मैं जनसेवक वैद्य हूँ खैराती दवा बाँटने वाला! फिर भी (औषधियों की) खरीददारी करने वाले लोग मेरी अवहेलना करके (अर्थात् अविश्वास करके) अन्यत्र जाया करते हैं।
योषिदियं तन्वङ्गी चकितकुरङ्गीव याति भयभीता।
प्रतिचत्वरं सहेलं शूरक्लीबा अटन्ति परम्।।१२
हड़बड़ाई हुई हिरनी की भाँति बेचारी यह तन्वङ्गी महिला भयभीत मुद्रा में चली जा रही है परन्तु (देखिये) ये बहादुर हिजड़े हर चौराहे पर बड़ी मस्ती के साथ पर्यटन कर रहे हैं।
कामं छिन्धि समूलं मां मधुपं शबर! परशुभिरिहाद्य।
त्रोटय नवकिसलयान्न तदपि सखे! प्राणसंसक्तान्।।१३
हे शबर! आज इस वन में कुल्हाड़ों द्वारा भले ही मुझे (मधुप वृक्ष को) जड़ से काट दो। लेकिन बन्धु! प्राणों से प्रिय नई कोपलों को मत तोड़ो!
खण्डितवृत्तो जनको जननी दासी वसतिश्च वेश्यासु।
सद्वंशजोऽहमीदृङ्मार्दङ्गिकस्ततः परं किम्।।१४
मेरे पितृचरण – एक चरित्रहीन (अज्ञात व्यक्ति विशेष) मेरी जननी – एक नौकरानी और मेरा निवास वैश्याओं के बीच! ऐसे सद्वंश में अवतार लेने वाला मैं एक मृदङ्गिया (भँडुवा) हूँ। भला इससे अधिक होता ही क्या?
नृत्यन्मयूरपुञ्जं कोऽपि न पश्यत्युपनदि सुकलापम्।
द्रष्टुं तित्तिरयुद्धं किन्त्वभिधावति जनौघोऽज्ञः।।१५
नमदी के किनारे नाचते हुये, मनोहर कलाप (पूँछ) वाले मयूरों को कोई नहीं देखता। परन्तु तीतरों की लड़ाई देखने के लिये सिरफिरे लोगों का दल दौड़ कर पहुँचता है।
दृष्ट्वा कृषाणजनकं छात्रयुवासौ कुत्सितपरिधानम्।
मध्येवयस्यनिकरं हन्त तमात्मसेवकं वदति।।१६
वाह वाह! मैले-कुचैले वस्त्रों वाले किसान बाप को देख कर वह नौजवान छात्र मित्रमण्डली के बीच उसे अपना नौकर बता रहा है।
धनदत्ते दिवि याते मा खलु रण्डेति मां वदतु लोकः।
यदवधि नाहमदत्ता को नु मत्कामप्रतिकूलः।।१७
(अपने पतिदेवता) के स्वर्गवासी हो जाने पर (खबरदार) लोग मुझे राँड कत्तई न कहें। अरे जब तक मै स्वयं “अदत्ता” (सती-साध्वी) नहीं हूँ, भला कौन मेरी विषय-वासना का तिरस्कार कर सकता है?
निष्कृपकृपाणपाणिर्वधिकजनोऽसौ शतपशुविनिहन्ता।
पश्यायं जरदस्थिः प्राप्तविमानो वृथा जीवति।।१८
पहले सैंकड़ों पशुओं को मौत के घाट उतारने वाला तथा निर्मम छुरा हाथ में रखने वाला बूढी हड्डियों वाला जल्लाद अब लोकापमान प्राप्त करता हुआ, देखो! व्यर्थ ही जी रहा है।
नास्मिन्कापि भृतिस्ते न च लाभो न खलु किमपि परं यशः।
धिक्त्वां पिशुपिशाचं हृन्दि गरलयसि तदपि यत्त्वम्।।१९
न इसमें तुम्हारी कोई जीविका निहित है, न कोई लाभ है और निश्चय ही न कोई उत्तम यश है। फिर भी जो तुम (लोगों के) हृदय में विष भरते रहते हो ऐसे पिशाच सरीखे तुम निन्दक को धिक्कार है।
क्रीत्वा वणिक्पलाण्डुं यदहम्मन्योऽसि त्वं सञ्जातः।
भविता तवैव हानिर्मूढ! विनष्टे तु वाणिज्ये।।२०
सेठ जी! प्याज की खरीददारी करके जो तुम्हारा दिमाग आसमान छूने लगा है तो मूर्खाधिराज, समझलो! व्यापार में घाटा आने पर तुम्हारी ही बधिया वैठेगी!
श्याल! जनिस्तव सफला प्रदाय भगिनीं जनाय कस्मैचित्।
तद्गृहमुखोऽसि जातो भ्रमति वराकस्सहोदरस्तु।।२१
साले साहब! आपका ही जन्म सार्थक है जो कि किसी व्यक्ति के साथ अपनी बहन ब्याह कर, उस घर के “सर्वराहकार” बन बैठे हैं और बेचारा (बहनोई का) सगा छोटा भाई फाँके मार रहा है।
माताद्यापि तु पेष्ट्री धनिकगृहे कथमपि यापयति दिनम्।
पश्यासौ तत्पुत्रो विहरति परितो विपणिवीथीम्।।२२
माँ आज भी किसी रईस के घर में “पिसनहर” (आटा पीसने वाली) बनी किसी तरह दिन काट रही है और देखिये, ये हैं उसके सुपुत्र जी, जो बाजार की गलियों में चौतरफा मुवायना कर रहे हैं।
ग्रामेऽस्मिन् विद्यन्ते बहवो ह्याङ्गलविदः कलाचार्याः।
तत्किं प्रयासि भिक्षुक! तेषां कौतुहलार्थमेव।।२३
इस गाँव में तो अंग्रेजी जानने वाले बहुत से “एम.ए. पास” लोग हैं। तो फिर भिखारी ठाकुर! मात्र उनकी चुहलबाजी के लिये काहे चले जा रहे हो?
पशुवर्गः
मा वह गर्वमपारं नवतृणभारं खादन्नजापुत्र।
अद्य श्वो वा भविता मरणं नूनं हि मांसार्थम्।।२४
नई-नई घासों का ढेर खाते हुये है अजापुत्र! अत्य़धिक घमण्डी मत बनो। क्यों कि आज या कल ही मांस के निमित्त निश्चित रूप से तुम्हारा वध महोने वाला है।
धवलमृगेन्द्र! तवायं बन्धनहेतुरप्रतिमधवलिमैव।
यद्बद्धोऽसि त्वमेव बहवः काननमटन्त्यन्ये।।२५
श्वेतव्याघ्र! तुम्हारी यह बेजोडं सफेदी ही (तुम्हारे) बन्धन का कारण है। जभी तो एक तुमही बँधे हुये हो, अन्य बहुतेरे (जो श्वेत नहीं हैं) वन में घूम रहे हैं।
धिक्त्वां वधिक! यदुरसां प्राणवतामपि न स्नेहलवस्तव।
द्रक्ष्यसि किन्तु ममास्थनि मन्मरणेऽपि सुपूरं तस्य।।२६
बहेलिये! धिक्कार है तुम्हें कि प्राण-संकुल होते हुये भी तुम्हारे हृदय में स्नेह (अर्थात् तैल, चिकनाई) की बूँद तक नहीं। परन्तु मेरे मरने का बाद भी (हृदय की कौन कहे) हड्डियों में भी उस स्नेह (चर्बी) का भणडार देखोगे!
धर्मः सुरभितनूजस्त्वं शिववाहनश्च कृषिधनहेतुः।
यन्त्रयुगेऽस्मिन्निखिलं गतमैश्वर्यं वृषभ बन्धो।।२७
तुम धर्म (के स्वरूप) हो, कामधेनु के पुत्र हो, भगवान् शङ्कर के वाहन हो, कृषिसम्पदा की आधारशिला हो (फिर भी) हे बन्धु वृषभ! मशीनों के इस युग में तुम्हारा ऐश्वर्य जा चुका है।
हृतापं मद्वचनैस्त्यज गजशावक! च न नाद्रियसे त्वम्।
ग्रामविवाहेऽद्यापि प्रथमसपर्या तवैवास्ते।।२८
गजशावक! मेरा कहा मानो, मन का मलाल छोड़ दो! ऐसी बात नहीं है कि तुम्हारा आदर नहीं हो रहा है। गाँव-गिराँव में होने वाले विवाह-महोत्सवों में आज भी पहली पूजा तुम्हारी ही होती है।
नक्तन्दिवमभिधावन्नभवद्यो निजधनिकाय धनवर्षी।
विधियोगाज्जरदश्वस्सोऽयं घासाय लोलाक्षः।।२९
रात-दिन चौकड़ी भरता हुआ जो अपने सेठ के लिए “धनवर्षी” बना रहा, वही यह बूढा टट्टू (आज) संयोगवश घास के लिये ललचाई आँखों वाला हो रहा है।
आदाय निखिलमांसं वधिक दयालो! मृगचर्म निवर्तय।
जनकोत्कन्निजशावं तेनैव सन्तोषयिष्यामि।।३०
हे कृपालु वधिक! सारा मांस लेकर (मेरे पति) मृग का चमड़ा लौटा देना! पिता के लिये उत्कण्ठित अपने छौने को (उसी मृगचर्म) से ढांढस बँधाऊँगी।
यदवधि सबलशरीरश्चर घनवीथीं चत्वरवृषभ त्वम्।
वार्द्धक्ये नु गताङ्ध्रेस्तव दुर्गतिस्तु निश्चितमेव।।३१
चत्वर वृषभ! (छुटुवा साँड़) जब तक शरीर बलवान् है सँकरी गलियों में तुम घूम-टहल लो! बुढाई बेर जब जाँघें कमजोर पड़ जायेंगी (तब) तुम्हारी दुर्दशा तो होनी निश्चित ही है।
भोजनलपनशरीरं बभूव कुटिलं सर्वमेवोष्ट्रस्य।
तदपि कुटिलतरलोकः कृतपर्याणं तमधिरोहति।।३२
भोजन-सामग्री, मुखाकृति और शरीर का ढाँचा – ऊँट का सब कुछ “कुटिल”ही हुआ। फिर भी, अपेक्षाकृत अधिक टेढी प्रकृति वाला जनसमुदाय पलाँग बाँध कर उसकी सवारी करता (ही) है।
सन्ततिरसि सरमायाः प्रख्यातास्ति तव स्वामिनि भक्तिः।
रे कुक्कुर! तदपि त्वं त्यजसि विवेकं कथं मूत्रे।।३३
(देवताओं की कुतिया) सरमा की सन्तान हो। स्वामी के प्रति तुम्हारी निष्ठा भी लोक-विश्रुत है। फिर भी अरे कुक्कुर! पेशाब करते समय विवेक क्यों छोड़ देता है?
दधिघृततक्रपयोभिस्तोषितवत्यनिसं सकलगृहं या।
पस्य जरद्धेनुस्सा व्यर्थेति वधिकाय दीयते।।३४
दही, घी, मट्ठा, और दूध से जिसने समूंचे घर को रात-दिन सन्तुष्ट किया देखो! वही बूढी गाय ‘वेकार’ समझ कर जल्लाद के हाथ सौंपी जा रही है।
पौरुषवति वननाथे मत्तगजोऽपि न खलु वनमुपाययौ।
पश्याद्य तु गजशक्तेर्निर्भयकाकः क्षतं कृन्तति।।३५
वनकेसरी के पौरुष चलते मतावाला हाथी भी कभी जंगल नहीं आया। (परन्तु) देखिये, आज तो शक्तिहीन (उसी सिंह) के घाव को ढीठ कौवा खोद रहा है।
सत्यं वदामि पशवो मनुजेभ्योऽप्यधिकं विवेकवन्तः।
यच्चेतकः प्रतापं शौर्यविभूतिं ररक्षाजौ।।३६
सच कहता हूँ कि पशु मनुष्यों से भी अधिक विवेक-सम्पन्न हो जाते हैं। देखिये न, चेतक ने पराक्रमशाली महाराणा प्रताप की युद्धभूमि में रक्षा की!
चपलकुटिलसञ्चरणैर्मोदय जननीं भृशं गर्दभ! त्वम्।
कतिपयदिनैर्यतस्तव भविता पैत्रिकपदनियुक्तिः।।३७
वैशाखनन्दन! (अपनी) चञ्चल, टेढी-मेढी चाल से तुम अनेकशः माँ को खुश कर लो। क्योंकि कुछ ही दिनों में पैत्रिकपद (अर्थात् बोझे ढोने के कार्य में) पर तुम्हारी नियुक्ति होने वाली है।
बद्ध्वाब्धौ सेतुं ये चक्रुर्लङ्कायां तुमुलसङ्गरम्।
तेषामेव सुतस्त्वं मर्कट! नटसि प्रतिद्वारम्।।३८
सागर में पुल बाँध कर जिन्होंने लङ्कापुरी में भयङ्कर संग्राम किया उन्हीं के वंशज होकर हे मर्कट! तुम द्वार-द्वार नाच रहे हो!
विहगवर्गः
विहितविविधबहुकेलिस्तरुवनकुञ्जेष्वियं विहगयुगली।
यदवधि पञ्जरगाऽभून्नितरां क्षीणत्वमुपयाति।।३९
वृक्षों तथा वनकुञ्जों में नाना प्रकार के बहुतेरे खेल-खिलवाड़ करने वाली पक्षियों की यह जोड़ी जिस दिन से पिंजरे में कैद हुई (उसी दिन से) निरन्तर कृशकाय होती जा रही है।
मा कुरु पिक! मृदुनादं नियमय कण्ठं च बलिभुजां वसतौ।
दृष्टिपथागतिमात्रं भविता त्वन्नीडनाशार्थम्।।४०
हे कोकिल! मीठी वोली मत वोलो! कौओं की वस्ति में कण्ठ पर नियन्त्रण रखो। (कौवों के) दृष्टिपथ में तुम्हारा आ भर जाना तुम्हारे घोंसले के विनाश का कारण बन जायेगा।
तव चञ्चुस्तव नेत्रं तव वर्णस्तव वाणी तवोद्यमः।
अहह बभूव न कोऽपि प्राण्यनुरञ्जनाय रे काक।।४१
तुम्हारी चोंच, तुम्हारी (कानी) आँख, तुम्हारा (काला) रंग, तुम्हारी (रूखी) वाणि और तुम्हारा (घिनौना) उद्योग! हाय रे कौवे! कौई भी एक प्राणियों के मनोरञ्जनार्थ न हुआ!!
धन्या धीस्तव टिट्टिभ! यदूर्ध्वंचरणस्त्वमनिशं सुप्तोऽसि।
निपतद्गगनधरत्वं तेऽस्तु वा न वाऽस्त्येव व्रतम्।।४२
टिटहरे! धन्य है तुम्हारी बुद्धि जो कि तुम पैरऊपर करके निरन्तर सोये रहते हो। गिरते हुए आकाश को थाम पाना तुम्हारे लिये सम्भव हो या असंभव, किन्तु तुम्हारा (अखण्ड) व्रत तो है ही?
शुक! मुकुलितजिह्वत्वं भज वेलेयं न तु वाक्पटुताया।
जर्जरकपाटकोणेऽत्रैव विडाली मूषिकमत्ति।।४३
सुए! जबान पर ताला लगा कर बैठ जा! वाक्पटुता (दिखाने) का यह अवसर नहीं है। यहीं, दरकी हुई किवाड़ के कोने में बिल्ली चूहा खा रही है।
भव्यमुलूक! तव स्यादहनि तु यत्त्वं किञ्चिदपि न पश्यसि।
मूढोह्यां धनलक्ष्मीं चौरान् गमयसि निशीथ एव।।४४
उलूकराज! तुम्हारी जय हो जो कि तुम दिन में कुछ नहीं देख पाते हो। तभी तो मूर्खों द्वारा संग्राह्य लक्ष्मी को अर्धरात्रि में ही चोरों के पास जाने देते हो!
अभिनवमसृणमृणालं सरसि यदस्मिन्बुभोज सर्वदैव।
तज्जिगमिषति कथं खलु हित्वा तद्बकभयाद्धंसः।।४५
जब कि इसी सरोवर में सब दिन नए-नए चिकने कमलनाल का भक्षण करता रहा तो फिर आज वगुलों के भय से उसका परित्याग कर राजहंस भला क्यों जाना चाहता है?
मामवलोक्य तु चटकं पश्य झम्पते बिडालहतकोऽयम्।
कौलेयकसृतिमधमः किन्तु स एव न याति कदापि।।४६
देखिये, मुझ चटक (गौरैय्या) को तो देखकर यह नीच बिल्ला झपटा मारता है। लेकिन हरामखोर वही कुत्ते मके रास्ते में कभी नहीं पड़ता है।
हित्वा दधिभक्ताशां याह्यन्यत्र रे काक वृत्त्यर्थम्।
कलयसि किमियन्नो त्वं यदतीतं हि पितृपक्षदिनम्!!४७
अरे कौवे! दही और भात की आशा छोड़कर पेट पालने के लिए (अब) कहीं और जा! क्या तू इतना भी नहीं समझता कि (अब) पितृपक्ष के दिन बीत गये?
कुरु नयनासेचनकं भ्रातः खञ्जन! शरच्छटां पश्यन्।
बहुबाधे तु निदाघे भविता भुवि न दर्शनमपि तव!!४८
भैया खञ्जन! शरद् ऋतु की शोभा निरखते हुए (दर्शकों की) आँखों को ठंडी करो। अनेक बाधाओं से भरी ग्रीष्मऋतु में तो धरती पर तुम्हारा दर्शन भी नहीं हो पायेगा।
याह्यश्रूणि प्रमृज्य रक्ष शावकान् विजहि च पतिचिन्ताम्।
त्वामपि वधिकोऽयं ननु नयति कपोति! तद् दशामेव।।४९
आँसू पोंछ कर चली जा, बच्चों की देखभाल कर और (मृतक) पति की चिन्ता छोड़ दे। कपोती! यह बहेलिया निश्चय ही तुझे भी उसी दशा (अर्थात् मृत्यु) में ले जायेगा।
प्राणिवर्गः
किम्मां त्वमुपालभसे मूढपथिक हे! गरलदंशनार्थम्।
जगति द्विजिह्वको यः मत्तोऽप्यधिकविषमस्सोऽपि।।५०
सिरफिरे बटोही! विषभरे दंशन के लिये तू मुझ द्विजिह्व (सर्व) को क्या उलाहना दे रहा है? दुनियाँ में जितने भी द्विजिह्व (अर्थात् दोगले) मनुष्य हैं वे मुझसे भी अधिक विषैले हैं।
इन्दिन्दिर! मधुलोभादात्मानं निक्षिपसि बन्धने त्वम्।
सूर्याधीनो मोक्षः सम्प्रति मरणं गजाधीनम्।।५१
मधुप! मधुरस के लोभवश तुम स्वयं को (कमलपुष्प के) बन्धन में फंसा चुके हो। अब तो तुम्हारी मुक्ति सूर्य़ के अधीन तथा मृत्यु हाथी के अधीन है।
तन्तुभिरवाप्य कीटान्यत्त्वं लूते! निर्दयतया हंसि।
धिक्त्वां तस्माद् डाकिनि! वन्द्यासि तदपि गृहोद्यमेन।।५२
अरी डायन मकड़ी! तुझे इस बात के लिये धिक्कार है जो तू जालों द्वारा कीड़े-मकोड़ों को फंसाकर निर्दयता पूर्वक मारा करती है। हाँ, घर बनाने की कारीगरी के लिये तू (अवश्य) वन्दनीय है।
किन्तव मयापराद्धं किमिव च मनुष्यैस्तव विहितं प्रियम्।
भ्रातर्दण्ड! विनिध्नन् मां डुण्डुभं को लाभस्तव।।५३
भैया लट्ठराज! मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया है और मनुष्यों ने ही भला तुम्हारा क्या उपकार कर दिया है? मुझ डुण्डुभ (निर्विष सर्पः को मारते हुए तुम्हारा कौन लाभ हो रहा है?
कोऽन्योऽधम इह भूमौ रे खल वृश्चिक! त्वमिव नु भविष्यति।
यत्सहजस्तव दंशो व्यथयति लोकं प्रतिदिनमेव।।५४
अरे दुष्ड बीछू1 इस भूतल पर तेरे जैसा और कौन नीच प्राणी होगा जो ति तेरा स्वाभाविक डंक प्रतिदिन लोगों को प्रभावित करता रहता है।
नाहमुपैम्यवमानं यत्त्वं यूके! निवससि मद्वसने।
चिन्त्यं नु तदपि पिशाचि! भृतिरपि यत्ते ममासृजैव।।५५
यूके! (जुआँ) इस बात से मैं कत्तई अपमान का अनुभव नहीं करता कि तू मेरे कपड़ों में रहती है। डायन! चिन्ता तो इस बात की है कि तेरी जीविका भी मेरे ही खून से चलती है।
यदवधि नलिनमरन्दं रोदररमणी हन्त निपीतवती।
तदवध्येव विमुग्धा नयति दिनं कथमपि मुषितेव।।५६
हाय, जिस दिन से मधुकरी ने कमलपुष्प का रसपान किया है उसी दिन से वह पगली खोई-खोई सी किसी तरह दिन काट रही है।
कथमपि नय सितराकां मा खलु खद्योत! भृशं विद्योतय।
आयातेऽसितपक्षे भविता मूढ! तवैव राज्यम्।।५७
जुगुनू भैया! किस तरह अँजोरा पाख काट लो, बार-बार जगमगाओ नहीं। अरे बुद्धू! अँधियारा पाख आने पर तुम्हारा ही राज रहेगा।
कथमधिपतिर्न दुर्दुर! भवसि यदि कूप एव ब्रह्माण्डः।
मूढ! तवेयं भ्रान्तिः नंक्ष्यति शीघ्रं बहिरागते।।५८
यदि कुआँ ही (तुम्हारे लिये) ब्रह्माण्ड है तो फिर हे मण्डूक! तुम राजा कैसे नहीं हो? मूर्ख! बाहर निकलने पर शीघ्र ही तुम्हारी यह भ्रान्ति नष्ट हो जायेगी।
मधु सञ्चिनोसि तस्माद्भुवि संजाता ते ह्यनुपक्रमकीर्तिः।
गम्यागम्यनियमने तदपि विवेको न ते दृष्टः।।५९
मधु एकत्रित करती हो, इसलिए संसार में तुम्हारी अनुपम कीर्ति फैली है। फिर भी हे मधुमक्षिके! गम्य तथा अगम्य के व्यवहार में तुम्हारा विवेक नहीं दिखाई पड़ता!
विटपिवर्गः
अयि पाटल! मधुकामं व्यवसितयामं कथं कदर्थयसि?
अलिरयमेव तवालं परिमलमाल्यं दिशि-दिशि किरति।।६०
अरे पाटल (स्थल कमल) प्रतीक्षा में समय काटने वाले मधुलोभी भौंरे को तू क्यों कदर्थित कर रहा है? यही भौंरा तेरी सुगन्ध-सम्पत्ति को भलीभाँति दिशा-दिशा में बाँटता फिरता है।
धिक्तं व्रततिवितानं सुकुसुमफलाढ्यमपि सखगविरावम्!
यः खलु रसालमौलिं सततं जीवाय समाश्रयते।।६१
पक्षियों के कलरव से श्रीमण्डित तथा फूल-फल से लदे हुये भी उस लता-वितान को धिक्कार है जो अपनी जीविका के निमित्त निरन्तर आम्रतरु के शिखर का सहारा ढूँढता है।
अस्तङ्गतवति भानौ नलिनि! प्रेयसि! माऽतिशुचं याहि।
सविताऽयमेव भविता कतिपयसमयैस्सभाजयिता।।६२
सूर्य के अस्ताचलगामी हो जाने पर हे कमलिनी! प्रियतमा की भाँति विषाद का अनुभव मत करो। यही सविता कुछ समय के बाद (अर्थात् उदयवेला में तुम्हारा) अभिनन्दन करने वाला बनेगा।
मधुर इतीव रसालं मां लोकोऽयं प्रतिपलं पीडयति।
श्लाघ्योऽस्ति तिन्तिडीकः स्वकषायत्वेन निर्द्वन्द्वः।।६३
‘मीठा है’ इस प्रकार की धारणा रखता हुआ यह संसार मुझ आम्रवृक्ष को प्रतिपल (ढेले मार-मार कर) पीड़ित करता है। प्रशंसनीय तो है इमली, जो अपने कसैलेपन के कारण निष्कण्टक है।
कमल! न ते सौभाग्यं न तवापेक्षाऽस्ति नवजगत्यधुना।
कृतकैस्तवानुरूपैर्यदिह नितम्बिन्यलङ्क्रियते।।६४
कमल! तुम्हारे दिन अब लद गए। नई जुनियां में अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं रह गई है। अब तो तुम्हारे ही अनुरूप बने नकली गहनों से रमणी का अलङ्करण होता है।
उदयति नभसि दिनेशे विकसन्ति निखिलकुसुमानि किमनेन?
श्लाघ्या खलु शेफाली निबिडनिशीथेऽपि या विकसति।।६५
आकाश मण्डल में दिवाकर के उदित हो जाने पर सारे फूल खिल जाते हैं , समें आश्चर्य ही क्या? धन्यवाद तो है उस हरसिंगार को, जो घनी अर्धरात्रि में भी फूलता है।
अयि भोः करीरविटपिन्! निष्पत्रो यद्यपि विधियोगादसि।
तदपि मुकुन्दस्मरणे लीलाङ्गत्वेन त्वन्नाम।।६६
अरे भाई करीर वृक्ष! यद्यपि विधाता के विधानवश तुम पत्रहीन हो गये हो फिर भी भगवान कृष्ण का स्मरण करते समय, उनकी लीला का अंग होने के नाते, तुम्हारा भी नाम आता है।
किं ह्युपकृतं विधात्राऽऽमूलं त्वां कण्ठकमयं ननु कृत्वा।
अयि हतक! कण्टकारे! यद्युष्ट्रस्त्वां भक्षयत्येव।।६७
भटकैया बहन! यदि ऊँट तुम्हें खा ही जाता है तो विधाता ने तुम्हें आमूल कण्टकमयी बनाकर भी भला क्या उपकार किया?
मूलविटपबहुपर्णं कुसुमफलं च सर्वमेव ममास्ते।
तदपि नु मां खर्जूरं लोको निन्मदति गतच्छायाम्।।६८
जड़ तना बहुतेरे पत्ते, फूल और फ़ल – सब कुछ मेरे पास हरै फिर भी एक छायारहित होने के कारण संसार मुझ खजूर की निन्दा करता है।
को हि तुलामधिरोहति ननु तव समरसतायामयि द्राक्षे!
अपि कृशतामुपयाता त्यजसि मधुरतां न हि मनाक्त्वम्।।६९
अरी द्राक्षा! (किसमिश) तेरी जैसी मिठास की बराबरी भला और कौन कर सकता है? तू तो कृशकाय होने के बावजूद भी अपनी मधुरिमा को तिल भर भी नहीं छोड़ती है।
दुस्सहनिदाघदाहं सोढ्वा शिरसाप्युपकरोषि जगताम्।
न्यग्रोध घनच्छायिन्! तस्मात्कीर्त्तिस्तवाऽकीर्णा।।७०
सघन छाया वाले वटवृक्ष! असह्य ग्रीष्म-ताप को अपने सिर पर झेल कर तुम संसार का कल्याण करते हो। तभी तो तुम्हारा यश लोकविश्रुत है।
केयमपूर्वा रीतिः भ्रातर्नीप! तव कुसुमोद्गमनस्य।
यच्चरणाघातैस्त्वं युवतिजनानां सम्प्रहृतोऽसि।।७१
भैया अशोक! तुम्हारे फुलाने की यह कौन सी अद्भुत परिपाटी हौ जो कि तुम रमणी-जनों के पाद-प्रहारों से सम्मानित किये जाते हो!
चन्दनभूर्जरसालास्सर्वे ख्याताः स्वकीयगुणैरेव।
किन्तून्नतकन्धरता केन गुणेनास्य तालतरोः।।७२
चन्दन, भोज एवं रसाल – ये सभी वृक्ष अपनो गुणों से ही प्रख्यात हुए हैं। परन्तु किस गुण के कारण ताल वृक्ष को (इतना) ऊँचा कन्धा नसीब हो गया?
पञ्चामृतगणनायां यद्यपि पदं तवापि लशुन बन्धो!
तदपि विकटकटुगन्धैस्सर्वं विषमयं संजातम्।।७३
बन्धु लहसुन! यद्यपि पाँच ‘अमृत’ अमृत पदार्थों की गणना में तुम्हारा भी स्थान है। फिर भी भयङ्कर कटुगन्ध के कारण तुम्हारा सारा वैभव विषमय हो गया।
विधिहतकेन कुरूपं त्वं खलु विहितं पनसफल यद्यपि।
तदपि न को जानीतेऽन्तस्स्वादन्ते जगति मधुरम्।।७४
पनसफल! (कटहल) यद्यपि दुष्ट विधाता द्वारा तुम निश्चित ही (बाहर से) कुरूप बना दिये गये हो। फिर भी संसार में तुम्हारा मिठास भरा भीतरी स्वाद कौन नहीं जानता?
किन्तव वृथानुरागैर्मालाकार¡ धिक् परिश्रमं हि तव।
आतमारोपितमपि मां यत्त्वं मुष्णासि पुष्पार्थम्।।७५
माली! तुम्हारे परिश्रम को धिक्कार है। तुम्हारे निरर्थक प्रेम दिखाने से क्या लाभ? अपने ही द्वारा आरोपित किये गये मुझे (पुष्पतरु) जो कि तुम फूल की खातिर लूटते रहे हो!
कीर्तिरुदुम्बर बन्धो! केयमपूर्वा निखिलजगति वितता।
यत्फलसि प्रतिशाखं कुसुममदृष्टं तथाप्येकम्।।७६
गूलर भाई! सारे संसार में तुम्हारी यह कौन अद्भुत् परम्परा फैली हुई है कि हर डाली फलों से लदी है किन्तु फूल एक भी नहीं दिखाई पड़ता?
सन्ततिसौख्यमनल्पं प्रायो भुवि भवत्येव सर्वेषाम्।
किन्तु किमस्ति कदल्याः क्षयं याति या सन्तत्यैव।।७७
प्रायः भूमण्डल में समस्त प्राणियों के लिये सन्तान का सुख अपरिमेय होता है। परन्तु बेचारी कदली कौ क्या (सुख) जो अपनी सन्तान से ही नष्ट हो जाती है।
अश्वत्थ! न तव पुष्पं दैवतयोंग्यं न च फलं सुमधुरम्।
तदपि तवादृतिरस्माद्यत्त्वयि निवसन्ति वेतालाः।।७८
पीपल! न तो तुम्हारा फूल देवताओं को चढाने लायक होता है और न ही फल अत्यन्त मधुर होता है। फिर भी तुम्हारी प्रतिष्ठा इस बात से होती है कि भूत-पिशाच तुममें निवास करते हैं।
जीरक! तव वृद्धिस्स्यात्प्रथितं हि महानसमहामात्यस्य।
आत्मानं विदहद्यत् द्विदलन्तु करोषि सुस्वादु।।७९
रसोई घर के महामन्त्री जीरक! प्रशंसनीय रूप से तुम्हारी बढती हो! जो कि तुम स्वयं को दग्ध करते हुये भी दाल को तो शोभन स्वाद बाली बना देते हो।
दृष्ट्वा मद्बहिरङ्गं याचे न खलु लोकोऽन्यथा कलयतु!
अहमस्मि नारिकेलं साक्षात्पीयूषमधुरान्तम्।।८०
विनम्र निवेदन है कि मेरी बाहरी बनावट को देख कर लोग कत्तई कुछ और न सोचें। मैं हूँ नारियल, जिसका कि अन्तराल एकदम अमृत के समान मीठा है।
वाणी स्यान्मुखभूषा का तव हानिरनेन रे ताम्बूल!
यावद्भुवि भक्तास्तव बन्धो! ख्यातिं परां यास्यसि।।८१
यदि वाणी ही मुख का आभूषण हो गयी तो क्यों रे ताम्बूल! इससे तेरी क्या हेठी हो गयी? भैया, जब तक पृथ्वी में तुम्हारे भक्तगण हैं (तुम) उत्कृष्ट यश प्राप्त करोगे?
प्रकीर्णवर्गः
किं कृतमनेन वियता क्रोडे कृत्वापि विधुमहोरात्रम्।
यद्रविममयूखतापैस्तेजो दिवसेऽस्य हृतं निखिलम्।।८२
रात दिन चमन्द्रमा को गोदी में लिये रहने पर भी इस आकाश ने (उसका) क्या उपकार किया? दिन में सूर्य-किरणों के ताप से तो उस (चन्द्रमाः का सारा तेज छीन ही लिया जाता है।
नयन! न तव दोषोऽयं यत्त्वं पश्यसि कृष्णमेव समग्रम्।
नागर एव सदोषो येन धृतं तादृशमुपनेत्रम्।।।८३
नेत्र! यह तुम्हारी गलती नहीं है जो कि तुम्हें सब कुछ काला ही काला दिख रहा है। गलती तो श्रीमान् जी की है जिन्होंने उस प्रकार का (अर्थात् काला) चश्मा लगा रखा है।
को नु निरातङ्कत्वे त्वमिव निखिलजगति भ्रात आदर्श!
काणं विकृतं खञ्जं यत्त्वं कथयसि समक्षमेव।।८४
भैया दर्पण! सारी दुनिया में तुम्हारे जैसा ‘भय न खाने वाला’ भला और कौन है जो कि तुम आमने-सामने ही (लोगों को) काना, कुबड़ा और लँगड़ा कह देते हो।
याति जलं क्षीरत्वं सङ्गमिते सति विहाय निजरूपम्।
तदपि कृत्घ्नमिदं हा पचने जलमेव विनाशयति।।८५
एक साथ मिलाये जाने पर, अपना स्वरूप छोड़ कर पानी दूध का रूप प्राप्त कर लेता है। हाय, फिर भी पकाते समय वही कृतघ्न दूध को विनष्ट कराता है।
ताडय मामतिकामं वादक! हस्तैर्नु दण्डकाघातैः।
तदपि पटहनामाहं स्वमधुरवाचं न त्यक्ष्यामि।।८६
वादक जी! जी भर कर मुझे पीट लो – चाहे हाथों से, चाहे डण्डों की चोटों से! फिर भी मेरा नाम है ‘नगाड़ा’! अपनी मीठी बोली नहीं छोड़ूँगा।
दीपक! कति दोषांस्तव लोकसमक्षन्तु दर्शयिष्यामः।
स्नेहविनाशस्त्वेकः शलभवधः कज्जलञ्चान्यौ।।८७
दीपक! दुनियाँ वालों के सामने तुम्हारे कितने दोषों को (हम) प्रस्तुत करें। पहला (दोष तो) है स्नेह (अर्थात् तेल) का विनाश करना। पतिङ्गों को जलाना तथा कालिख पैदा करना – ये अन्य दोष हैं।
मुषितचतुर्दशरत्नं यल्लवणशेषतां नीतोऽसि सुरैः।
माऽऽनेन तनुं क्लेशय यदधुनापि रत्नाकरतैव।।८८
चौदहों रत्न छीन कर देवताओं द्वारा जो तुम ‘लवणमात्रावशेष’ बना दिये गये, इस बात से शरीर को क्लेश मत दो। क्योंकि आज भी तुम्हें ‘रत्नाकर’ ही कहा जाता है।
मलमपनीय समेषामयि कासार! तान्निर्मलीकुरुषे।
दोषस्तदपि तवायं भवसि मलौघः यत्स्वयमेव।।८९
हे पोखर! (स्नान करने वाले) सब लोगों की मैल छुड़ा कर उन्हें निर्मल बना देते हो। फिर भी तुम्हारा ये दोष है कि तुम स्वयं गन्दगी के भण्डार बन जाते हो!
भ्रातर्ग्रन्थ! वयं त्वां कमिव जनं व्रूहि संविजानीमः।
योगवियोगनियोगं यत्त्वं सर्वमेवोपदिशसि।।९०
भैया ग्रन्थ! तुम्ही बताओ की हम तुम्हें किस व्यक्ति के समान समझें? जो कि तुम योग (मेलमुहब्बत) वियोग (बिछोह) तथा नियोग (आदेश-उपदेश) सब कुछ बताते हो!
शिरसि विशति कटुकाके मूकतयैव तं कृतकं विज्ञाय।
निर्भयगवयसमूहः पश्य समृद्धां कृषिं भुङ्क्ते।।९१
देखिये न, सिर पर ढीठ कौवे के बैठने पर (भी) चुप्पी साधे रहने पर उसे ‘कृतक’ (अर्थात् धोख) समझ कर निर्भय नीलगायों का झुण्ड खड़ी खेती चर रहा है।
जीवति कृषाणवर्गो ननु तवैव सृतिमवेक्षमाणोऽयम्।
धिक्त्वां जलद! यदुपलैस्तदपि क्षते क्षिपसि क्षारम्।।९२
एकमात्र तुम्हारी ही डगर निहारता हुआ यह कृषक-समुदाय जी रहा है। फिर भी जो तुम औले गिराकर कटे पर नमक छिड़क रहे हो, बादल थू है तुम पर।
कथमिव भवाम्यनीर्ष्यस्त्वामीदृशं पश्यन्नपि कर्पूर।
यन्म्रियसेऽग्निज्वालैर्जगति वितन्वन्सुरभिपुञ्जम्।।९३
हे कपूर! इस प्रकार का (सद्गुण-सम्पन्न) तुम्हें देखता हुआ भी भला मैं तुमसे ईर्ष्य़ा न करूँ? जो कि तुम संसार में सौरभ-समूह बिखेरते हुए आग की लपटों में खो जाते हो!
लेखनि! तव गुणपुञ्जं वाक्कृपणोऽस्मि कथमिव हि वर्णयामि।
योऽहं यथा यदर्थं तत्सर्वमेव त्वत्कृपया।।९४
लेखनी! बोलने में कंजूस हूँ, भला किस तरह तुम्हारे गुण-ग्राम की चर्चा करूँ? (आज) मैं जो कुठ हूँ, जैसे हूँ और जिस निमित्त हूँ – वह सब कुछ ही तुम्हारी कृपा से!
त्वं धन्यासि मुरलिके! या नीरसवंशविहितशरीरापि।
सङ्गम्य हरेरधरं निखिलचराचरजगन्मदयसि।।९५
सूखे बाँस से निर्मित शरीर वाली होती हुई भी हे वंशी! तुम धन्य हो। भगवान कृष्ण के अधर पर पहुँच कर सम्पूर्ण चराचर जगत् को मोहित कर लेती हो।
एकं त्वमिह तडागं संगत्य सलिल! जातुं नु विनिन्द्यम्।
तदपि तवैव भ्राता स्निह्यति गाङ्गे जगद्यस्मिन्।।९६
जल देवता! इस दुनियाँ में तुम एक पोखरे की संगति प्राप्त करके अत्यन्त निन्दनीय बन गए। (परनव्तु) वह भी तुम्हारा ही भाई है जिस ‘गङ्गाजल’ से संसार स्नेह करता है।
अलमलमतिमृदुनादैर्नायं मृदङ्ग! तव गुणलेशोऽप्यस्ति।
यत्तेऽखिलमाधुर्यं वदनयुगे तु पिण्डलेपेन।।९७
मृदङ्गराज! बहुत मीठी आवाज पैदा करने से कौई लाभ नहीं। इसमें तुम्हारी तिल भर भी बड़ाई नहीं है। अरे भाई! सारी मिठास तो तुम्हारे दोनों मुखों पर पिण्डलेप (पिसान चिपकाने) के कारण है।
जगति न कोऽपि गरीयान्नैव लघीयान्न धनी न च दीनः।
सर्वं त्वयैव रूप्यक! जनितमपारं हि वैविध्यम्।।९८
संसार में न कोई बड़ा है न छोटा। न धनी है और न ही गरीब। सारा का सारा अपरम्पार वैविध्य तो तुमने ही पैदा कर रखा है भैया रुपैया!
प्रीतिफलं किमिदन्ते मदिरे! यन्मनुजं निपात् कुसृतौ।
सङ्गं जहासि युगपद्रण्डे! धिक्त्वामविश्वस्ताम्।।९९
मदिरे! क्या तुझसे प्यार करने का यही फल है जो कि तू मनुष्य को कुमार्गगामी बनाकर तत्काल ही साथ छोड़ देती है? डायन! विश्वास न करने योग्य तुझे धिक्कार है।
रूपं यथैव कुटिलं त्वद्व्यवहारोऽपि ननु तथा कृपाण!
अहह कठोर! कदाचित्प्रविशसि विमलहृदि साधूनाम्।।१००
कृपाण! जैसा कि कुटिल तुम्हारा आकार है निश्चय ही तुम्हारा आचरण भी वैसा ही है! हाय रे निर्दय! कभी-कभी तू निरपराध जनों के निर्मल हृदय में (भी) घुस जाता है।
कविपरिचयः
आर्यान्योक्तिशतीयं रचिताऽभिनवा राजेन्द्रमिश्रेण।
भूयाद्रसिकसमाजे रसतटिनी भुवी सुरतटिनीव।।१०१
राजेन्द्रमिश्र द्वारा प्रणीत यह नूतन आर्यान्योक्तिशती सहृदय-समाज में उसी प्रकार (प्रतिष्ठित) हो जैसे भूतल में सुरनदी गङ्गा (प्रतिष्ठित) है।
युगदृग्गगनदृगाख्ये विक्रमीये शुभमकरसङ्क्रान्तौ।
शतकमिदं परिपूर्णं मुकुन्दकृपया शनौ जातम्।।१०२
विक्रमीय संवत २०२४ में पवित्र मकर-संक्रान्ति (१४ जनवरी सन् १९७६ ई.) की वेला में शनिवार के दिन यह शतक मुकुन्द की कृपा से परिपूर्ण हुआ।
भययाख्यविप्रवंशेऽजनि मुनिकल्पः कोपि गौतमीये।
श्रीमद्रामानन्दो भागवताङ्कोऽधिजौनपुरम्।।१०३
जौनपुर जनपद में गौतम गोत्र वाले भभया नामक ब्राह्मणों के वंश में परम भागवत, मुनि सदृश कोई श्रीमान् रामानन्द (मिश्र) उत्पन्न हुये।
तत्पौत्रः सुकविरयं श्रीमद्दुर्गाप्रसादाच्च जातः।
अभिराजीतनुजन्मा ख्यातोऽभिराजराजेन्द्र इव।।१०४
वह सुकवि उन्हीं (रामानन्द मिश्र) का पौत्र तथा श्रीमान् दुर्गाप्रसाद (मिश्र) एवं देवी अभिराजी का पुत्र है। अभिराजराजेन्द्र के रूप में विख्यात है।
निखिलजगद्विख्याते विश्ववविद्यालये प्रयागस्थे च।
ननु शारदैकसेवी नयति दिनं सुखं स्वाध्यायैः।।१०५
सम्पूरण संसारमें विख्यात प्रयाग विश्वविद्यालय में एकमात्र वीणापाणी की सेवा में रत (जो) अध्ययन-अध्यापन द्वारा सुखपूर्ण जीवन बिता रहा है।
लघुजीवनेऽपि दृष्टं रागविरागापरूपपरिणमनम्।
तेन च हरिपदलीनः स्वप्ने माधवकृपानुभवी।।१०६
छौटी जिन्दगी में भी (जिसने) प्रेम और अप्रेम (ईर्ष्य़ा-द्वेष) का घिनौना परिणाम देखा और उसी के कारण श्री हरि के चरणों में लीन हो गया तथा स्वप्न के माधव की कृपा का अनुभव करने लगा।
मूलं श्रीकविकालिदासकविता श्रीहर्षवाणी तनुः
पत्रं श्रीजयदेवदेववचनं श्रीविल्हणोक्तं सुमम्।
श्रीमत्पण्डितराजकाव्यगरिमा यस्यैकपूतं फलं
जीव्याद्धन्त निसर्गजोऽयमभिराड् राजेन्द्रकाव्यद्रुमः।।१०७
कालिदास की कविता जिसकी जड है, श्री हर्ष की वाणी जिसका तना है, जयदेव की कविता जिसका पत्र-समूह है, विल्हण का कवित्व जिसका पुष्प है तथा पण्डितराज जगन्नाथ की काव्य गरिमा ही जिसका एकमात्र पवित्र फल है, अभिराज राजेन्द्र का वह सहज काव्यतरु चिरजीवी हो।